Wednesday, June 4, 2008

..तो आज मूल्य वृद्धि की नौबत नहीं आती

Jun 04, 09:10 am
नई दिल्ली। सरकार ने बुधवार को पेट्रोल की कीमत में पांच रुपये प्रति लीटर, डीजल की कीमत में तीन रुपये प्रति लीटर और रसोई गैस की कीमत में 50 रुपये प्रति सिलेंडर के हिसाब से वृद्धि करने का फैसला लिया। कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में जबरदस्त वृद्धि के मद्देनजर यह फैसला लिया गया। केंद्र व तेल कंपनियां का दावा है कि उन्होंने आम आदमी को इस मूल्यवृद्धि से बचाने की पूरी कोशिश की है, लेकिन अब वे कुछ नहीं कर सकती जबकि असलियत इससे उल्टी है। पिछले चार वर्षो में सरकार व तेल कंपनियों के आलस्य के कारण कई ऐसे कदम नहीं उठाए जा सके, जो इतनी मूल्यवृद्धि की नौबत को रोक सकते थे।
यूपीए सरकार ने तीन वर्ष पहले अमीर और गरीबों के लिए अलग-अलग केरोसिन बेचने की योजना बनाई थी। गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों को केरोसिन सब्सिडी पर बेचने की योजना थी जबकि अमीरों से पूरी कीमत वसूलने की बात थी। लेकिन वाम दलों व अन्य सहयोगी दलों के विरोध के चलते इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
इसके बाद स्मार्ट कार्ड के जरिए केरोसिन के वितरण की योजना बनी, लेकिन राज्यों के विरोध के चलते यह भी परवान नहीं चढ़ सकी। केंद्र का रवैया भी सुस्त रहा। नतीजा यह हुआ है कि आज पूरे देश में केरोसिन की जबरदस्त कालाबाजारी हो रही है।
रसोई गैस पर सब्सिडी देने के चलते तेल कंपनियों की हालत खराब है। अगर समय पर इन तेल कंपनियों ने वाणिज्यिक प्रयोग के लिए रसोई गैस का पारदर्शी सिलेंडर बाजार में लांच कर दिया होता, तो कम से कम सब्सिडी वाली गैस होटलों और दुकानों में प्रयोग न होती। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा के बार-बार जोर देने के बावजूद तेल कंपनियां इसको लेकर आगे नहीं बढ़ीं। सरकार ने एक वर्ष पहले आयकर दाताओं से रसोई गैस की पूरी कीमत वसूलने की योजना बनाई थी लेकिन यह भी आगे परवान नहीं चढ़ पाई। बाद में इस पर विचार किया गया कि उच्च आय वर्ग से पूरी कीमत वसूली जाए, लेकिन इसके लिए भी सरकार हिम्मत नहीं जुटा पाई। अगर ये दो कदम उठाए गए होते तो कम से कम निम्न आय वर्ग और गरीब परिवारों के लिए आज रसोई गैस महंगा करने की नौबत नहीं आती।
मिलावट के चलते तेल कंपनियों को होने वाला घाटा लागत से कम कीमत पर पेट्रो उत्पाद बेचने से होने वाले घाटे पर नमक छिड़कने का काम कर रहा है। अगर तेल कंपनियों ने पिछले दो-तीन वर्षो में अपने टैंकरों में रेडियो फ्रीक्वेंसी आईडेंटिफिकेशन पद्धति लगाई होती, तो मिलावट को पूरी तरह से रोका जा सकता था।
यदि इन योजनाओं को लागू कर दिया गया होता, तो यह तय था कि तेल कंपनियों का घाटा कम से कम मौजूदा 2 लाख 46 हजार करोड़ रुपये के स्तर पर नहीं होता। और, घाटा कम होने से शायद पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में इतनी ज्यादा मूल्यवृद्धि करने की जरूरत नहीं पड़ती।

Source - http://in.jagran.yahoo.com/news/business/general/1_12_4511820/

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