Saturday, April 7, 2012
मरघट ही है तेरी सीमा
किसी अपने के लिए जीने का तेरा भी मन करता होगा
पर तू न रहे, तो तेरी माँ का प्यार हार चढ़ी फोटो भी बरसेगा !
उसी अपने के लिए तू मरने से नहीं डरेगा
पर जीवन और बलि के संघर्ष में लड़ना क्यों छोड़ दिया ?
क्या आज तू जिन्दा मरघट में नहीं खड़ा है ?
जब मरघट ही संसार तेरा, तो "मर" से "अमर" क्या बुरा है ?
सड़क से अस्पताल तक जो रुधिर बहा
वो म्रत्यु का आवरण नहीं कतल की साजिश है !
तू मरघट में पड़ा, भ्रस्टाचारी मंदिरों का आरोहण करे
तैतीस करोड़ देवता भी अब रोजी रोटी को संघर्ष करे !
त्रिमूर्ति, तू कब तक टिक पायेगी मंदिरों में ?
ऐ राजा तो अब स्वर्ग से भी तुम्हे बाहर करे
आज मनुज-भक्षी हुँकार रहे, शिखरों पर नंगा नाच रहे !
तुझे स्वीकार है सब, पर स्वीकार नहीं की...
साधू के धवल श्वेत तेज पर, चिंता की काली लकीर !
पुरुषार्थ के हल चलाने वाले पर, स्वार्थ की ओस
सेना के गौरव शीश पर, हिचक कर फुंकारने वाला नाग !
क्यों भूल रहा है ......जब दानव बड़े तो
माँ ने ममत्व छोड़, नर मुंड पहन, संघार गले लगाया है
शपथधारी कृष्ण ने, देवता भीष्म पर चक्र उठाया है....!
लड़, मर हो जा अमर, जब आंसू ही तेरी माँ का आभूषण है
और जब लड़, तो तोड़ मृदु व्रत, नर मुंड पहन, चक्र उठा, आरोहण कर
रहा तटस्थ, तो समय लिखेगा तेरा भी अपराध।
- Vinod Sharma - 07 Apr 12 - 12: 42 PM
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